सोमवार, 21 जुलाई 2014

अब

अब कि
जो सूखने लगा है
वो पीपल का पेड़,
तमाम रूहें
जो उसी पे रहती थी,
वे न जाने कहाँ गयी होंगी

और अब जो
रात भर टंगे रहते हैं
कंदील पे सूरज,
अब जुगनू नहीं दीखते,
भटकती रूहों को
अब रास्ता कौन दिखाता है |

शनिवार, 5 जुलाई 2014

सोचता हूँ यही

आजकल,
सोचता हूँ यही |
तुमसे कह दूँ,
या ना कहूँ ?

हां..! हां,ये सच है,
की डरने लगा हूँ मैं,
तुम्हे पाया नहीं,
बेशक,
मगर,एक हक़ लगता है,
जैसे तुम पर मेरा है |
ये हक़,
खो न दूँ कहीं |
आजकल,
सोचता हूँ यही |


ये गुस्ताखियाँ,
यकीं मानो,
बेइरादा हैं बिलकुल |
मगर अब,
एक ठोस हकीकत भी हैं ये |
हां, ये सच है,
की तुझे चाहने लगा हु मैं |
ना जाने तेरी नज़रों में,
ये कितना गलत है,
और कितना सही |
आजकल,
सोचता हूँ यही |


तमन्ना तो बहुत है,
की जज्बात-ऐ-बयाँ हो,
मगर,
एक डर है अब,
तुम मुझे चाहो या नहीं,
आजकल,
सोचता हूँ यही |

सोमवार, 23 जून 2014

ग़ज़ल

दयार-ए-दिल से तेरी याद को रुखसत तो कर दूँ मैं,
मगर ये सोचता हूँ वो , किधर जाएगी फिर तन्हा
थे जब तक अजनबी तुमसे,नहीं गम थे कोई हमको
मेरी दुनिया तुम्हारे बिन, संवर जाएगी फिर तन्हा
सभी साहिल पे सर पटके बहुत भटकी हैं ये मौजें,
ग़मों के ये समन्दर में ,उतर जाएँगी फिर तन्हा
ग़ज़ल की कैफियत से कट रही है जिंदगी राघव
इन्ही लफ़्ज़ों के संग ये भी बिखर जाएगी फिर तन्हा


रविवार, 22 जून 2014

बड़े खुश नसीब हो कि राह-ए-इश्क में रुसवाइयाँ मिली,
वरना कितने बीमारे-इश्क मरे , किसी को खबर नहीं | |


शनिवार, 7 जून 2014

उसको फैलाना था पूरी दुनिया में ज़हर

उसको फैलाना था पूरी दुनिया में ज़हर,तो उसने
एक मासूम बच्चे के खाने में ज़हर घोल दिया है||


वो ईशा हो या सुकरात या गाँधी,उसे दुनिया ने ,
सूली पे चढ़ाया है, जिसने भी सच बोल दिया है||


अभी तक जो बेचारे हवा के रहमों-करम पर थे,
अब उन परिंदों ने भी अपना पर तोल लिया है||


चले थे बंद कर आँखे जो लोग,रहबर के यकी पर,
कुछ देर से सही,उन सबने आँखें खोल लिया है ||


आफताब का इन्तेजार कैसा, तीरगी जैसी भी हो,
अब जुगनुओं ने जानबुझकर ये जंग मोल लिया है||